March 30, 2024

माँ

निदा फ़ाज़ली
जन्म: 12 अक्टूबर 1938, दिल्ली
निधन: 8 फरवरी 2016, मुंबई  

बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ
बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ

March 15, 2018

बटोहिया

रघुवीर नारायण
सारण, बिहार
३१ अक्टूबर १८८४ - १ जनवरी १९५५

सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया

जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहवां कुहुंकी कोइली बोले रे बटोहिया
पवन सुगंध मंद अगर चंदनवां से
कामिनी बिरह-राग गावे रे बटोहिया

बिपिन अगम घन सघन बगन बीच
चंपक कुसुम रंग देबे रे बटोहिया
द्रुम बट पीपल कदंब नींब आम वॄ‌छ
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया

तोता तुती बोले रामा बोले भेंगरजवा से
पपिहा के पी-पी जिया साले रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे गंगा धार रे बटोहिया

गंगा रे जमुनवा के झिलमिल पनियां से
सरजू झमकी लहरावे रे बटोहिया
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि दिन
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया

उपर अनेक नदी उमडी घुमडी नाचे
जुगन के जदुआ जगावे रे बटोहिया
आगरा प्रयाग काशी दिल्ली कलकतवा से
मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बटोहिया

जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहां ऋषि चारो बेद गावे रे बटोहिया
सीता के बीमल जस राम जस कॄष्ण जस
मोरे बाप-दादा के कहानी रे बटोहिया

ब्यास बालमीक ऋषि गौतम कपिलदेव
सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया
रामानुज-रामानंद न्यारी-प्यारी रूपकला
ब्रह्म सुख बन के भंवर रे बटोहिया

नानक कबीर गौर संकर श्रीरामकॄष्ण
अलख के गतिया बतावे रे बटोहिया
बिद्यापति कालीदास सूर जयदेव कवि
तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया

जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखि आउ
जहां सुख झूले धान खेत रे बटोहिया
बुद्धदेव पॄथु बिक्रमा्रजुन सिवाजी के
फिरि-फिरि हिय सुध आवे रे बटोहिया

अपर प्रदेस देस सुभग सुघर बेस
मोरे हिंद जग के निचोड़ रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेही
जन 'रघुबीर. सिर नावे रे बटोहिया.

December 20, 2016

सतपुड़ा के घने जंगल


भवानी प्रसाद मिश्र
होशंगाबाद, मध्यप्रदेश
२९ मार्च १९१३ - २० फ़रवरी १९८५ 
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

                सड़े पत्ते, गले पत्ते,
                हरे पत्ते, जले पत्ते,
                वन्य पथ को ढँक रहे-से
                पंक-दल मे पले पत्ते।
                चलो इन पर चल सको तो,
                दलो इनको दल सको तो,
                ये घिनोने, घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                मकड़ियों के जाल मुँह पर,
                और सर के बाल मुँह पर
                मच्छरों के दंश वाले,
                दाग काले-लाल मुँह पर,
                वात- झन्झा वहन करते,
                चलो इतना सहन करते,
                कष्ट से ये सने जंगल,
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                इन वनों के खूब भीतर,
                चार मुर्गे, चार तीतर
                पाल कर निश्चिन्त बैठे,
                विजनवन के बीच बैठे,
                झोंपडी पर फ़ूंस डाले
                गोंड तगड़े और काले।
                जब कि होली पास आती,
                सरसराती घास गाती,
                और महुए से लपकती,
                मत्त करती बास आती,
                गूंज उठते ढोल इनके,
                गीत इनके, बोल इनके

                सतपुड़ा के घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                उँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|

                धँसो इनमें डर नहीं है,
                मौत का यह घर नहीं है,
                उतर कर बहते अनेकों,
                कल-कथा कहते अनेकों,
                नदी, निर्झर और नाले,
                इन वनों ने गोद पाले।
                लाख पंछी सौ हिरन-दल,
                चाँद के कितने किरन दल,
                झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
                खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
                हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
                पूत, पावन, पूर्ण रसमय
                सतपुड़ा के घने जंगल,
                लताओं के बने जंगल।

June 07, 2014

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के

शिवमंगल सिंह सुमन
उन्नाव , उत्तर प्रदेश

५ अगस्त - २७ नवंबर २००२ 

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।

April 14, 2014

भये प्रगट कृपाला

भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी |
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ||

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी |
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ||

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता |
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ||

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता |
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयौ प्रकट श्रीकंता ||

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै |
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ||

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै |
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ||

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा |
कीजे सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ||
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा |
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ||