रामधारी सिंह 'दिनकर'(रश्मिरथी, तृतीय सर्ग़)
गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर
मेंहन्दी में जैसे लाली हो, वर्त्तिका बीच उजियाली हो
बत्ती जो नहीं जलाता है, रौशनी नहीं वह पाता है
पीसा जाता जब इक्षु - दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहन्दी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार
जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं
गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर
मेंहन्दी में जैसे लाली हो, वर्त्तिका बीच उजियाली हो
बत्ती जो नहीं जलाता है, रौशनी नहीं वह पाता है
पीसा जाता जब इक्षु - दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहन्दी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार
जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं
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