रामधारी सिंह 'दिनकर' (रश्मिरथी, तृतीय सर्ग)
मुझ-से मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं
पाते हैं धन बिखराने को, लाते हैं रतन लुटाने को
जग से न कभी कुछ लेते हैं, दान ही हृदय का देते हैं
प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबुतरों के ही घर,
महलों में गरूड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है
बसता वह कहीं पहाड़ॉ में, शैलॉ की फटी दरारॉ में
होकर समृधि-सुख के अधीन, मानव होता नित तपः क्षीण
सत्ता किरीट,मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज हरण
नर विभव हेतु ललचाता है, पर वही मनुष्य को खाता है
चॉंदनी,पुष्पछाया में पल, नर भले बनें सुमधुर,कोमल,
पर, अमृत क्लेश का पिये बिना, आतप अंधड़ में जिये बिना,
वह पुरूष नहीं कहला सकता, विघ्नों को नहीं हिला सकता
उड़ते जो झंझावातों में, पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजञ्ग भोजन जिनका,
वे ही फणिबन्ध छुड़ातें हैं, धरती का हृदय जुड़ाते हैं
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